क्या अब कलयुग की पराकाष्ठा हो रही है?

क्या अब कलयुग की पराकाष्ठा हो रही है?
भुवनेश व्यास (अधिमान्य स्वतंत्र पत्रकार)
हिंदू संस्कृति में मानव सभ्यता को चार कालखंड में बांटा गया जिसे त्रेतायुग, सतयुग, द्वापरयुग और कलयुग कहा जाता है। आज हम सतयुग से चलते हुए कलयुग तक आ गये है। प्रत्येक कालखंड में हमारी सभ्यता और संस्कृति में परिवर्तन होते गये आदि सथ्यता से निकलते हुए आज के कलयुग को घोर परेशानी उत्पन्न करने वाला माना गया है और जिस तरह मानवीय मूल्यों व सभ्यता का आज पतन हो रहा है ऐसा कहा जा सकता है कि शायद कलयुग अपनी पराकाष्ठा की ओर अग्रसर है।
मानवीय सभ्यता सबसे उत्तम कालखंड सतयुग को कहा जाता है जिसमें प्राणी मात्र सुख चैन से जीता था जिसमें हमने हिंदू संस्कृति व सभ्यता को चरम तक अपनाया मानवीय रिश्ते निर्मित किये और स्त्री पुरूष के भेद समझकर सम्मन दिश और लिया भी। सतयुग के बाद द्वापर युग आया और इस दौरान रिश्तों के पतन का सिलसिला प्रारम्भ हुआ फिर भी हमने अपनी मूल जड़ों को नहीं छोड़ा। द्वापर से फिर कलयुग में आ गये और मानवता व रिश्तों के पतन का समय प्रारम्भ हुआ। आज जिस तरह से हम समाज को देखते हैं तो पाते हैं कि मानवता लोगों में रही नहीं है जरूरतमंद की सेवा के बदले कुछ प्राप्ति ना हो तो हम उसे ऐसा ही छोड़ देंगे। हम आज परिश्रम की बजाय बायपास के रास्ते तलाशते हैं चाहे वो उचित ना हो। और सबसे बड़ी बात तो यह कि हम रिश्तों के मूल्यों को खो चुके हैं। स्त्री को चाहे वो कोई भी हो भेग की दृष्टि से ही देखते हैं और मौका मिलते ही उसे भोगने में चूकते नहीं है।
स्त्री को सृष्टि व सभ्यता की निर्मात्री मानकर हिंदू सभ्यता में पूजा गया है। स्त्री को जननी और विनाशक दोनों ही रूप में हमने प्रत्येक कालखंड में पाया है जिसके कारण ही हम कहते हैं कि स्त्री बिना कुछ नहीं है। यह भी कहा जाता है कि एक स्त्री जब अपनी इच्छा प्राप्ति पर आ जाती है तो वो सर्व विनाश के साथ स्व विनाश से भी नहीं चूकती है। ऐसा सतयुग में भी कभी कभार होता रहा है जो कलयुग के संकेत थे लेकिन हम समझ नहीं सके और इसी स्त्री से राम का इतिहास उत्पन्न हुआ जिसे हमारे विद्वानों ने रामायण नामक कालजयी ग्रंथ में संजोया जिसका उदृदेश्य यही था कि एक स्त्री सुर्पणा ने राम को पाने के लिए क्या क्या प्रपंच किये और उसके फलस्वरूप ना केवल रावण को अपना साम्राज्य खोना बल्कि राम भी राजा होते हुए कभी भी सुख नहीं भोग सके इसलिए रामायण ग्रंथ का उद्देश्य यही था कि स्त्रियां सुर्पणा की तरह कामपिपासु ना बनकर सीता की तरह गरिमामयी स्त्री सा आचरण अपने जीवन में अंगीकार करें और राम, लक्ष्मण और भरत सा चरित्र निर्मित करें जो स्वयं के लिए नहीं बल्कि अपनों के लिए जीये और अपनों के लिए मृत्यु को प्राप्त हो। राम के सतयुग में ही पड़े कलयुग के बीज द्वापर में पल्ल्वित होने लग गये और फिर एक स्त्री के कारण ही भातृवधु के चीरहरण और राजसत्ता के लिए भाई भाई को मारने जैसे कुकृत्य हुए जिसे भी हमारे विद्वानों ने महाभारत जैसे अमर ग्रंथ में आने वाली पीढ़ियों को संदेश दिया गया कि ऐसा ना कीजिए। हमारे महापुरूषों ने रामायण व महाभारत जैसे ग्रंथों विनाशक परिस्थितियों का उल्लेख इसिलिए किया था कि आने वाली पीढ़ियां इन घटनाओं से सबक लेकर आगे बढ़े और इसी कारण से प्रत्येक हिंदू परिवारों में ये दोनों ग्रंथ पाये जाते हैं।
द्वापर से निकलकर हमने अतीत से सबक नहीं लिया और कलयुग की व्याधियों को अपनाना शुरू कर दिया जमीन के एक एक टुकड़े के लिए भाई-भाई को मारने लगा मानवता समाप्त होने लगी और हम यह स्वीकारने लगे कि भाई ये कलयुग चल रहा है। जैसा मैने पहले उल्लेख किया कि हमारे प्रत्येक कालखंड की जननी भी स्त्री रही और विनाशक भी स्त्री ही रही। तो इसी परम्परा को देखें तो कलयुग में भी स्त्री का आचरण गिरने लगा और आज जो स्त्री का आचरण हम देख रहे हैं वो पतन की पराकाष्ठा माना जा सकता है। कलयुग की शुरूआत के साथ ही विधर्मी संस्कृति ने हमारी सनातन संस्कृति में घुसपैठ की जिसके चलते आज स्थिति यह हो गई है कि द्वापर में रिश्तों और आचरण को पुरूष ने खत्म करने का जो सिलसिला प्रारम्भ किया वो कलयुग में अपनी पराकाष्ठा तक पहुंच गया और अब यही सब आज की स्त्री ने अपनाना प्रारम्भ कर दिया है। आज स्त्रियों में ही जहां रिश्तों की मर्यादा नहीं रही तो शर्म लिहाज जैसा गहना भी उसने उतार दिया है। इक्कीसवीं सदी की शुरूआत से स्त्री ने जिस आधुनिक रूप को अपनाया है वो हमारे गांवों तक की संस्कृति को समाप्त कर चुका है। ऐसा लगने लगा है कि सनातन समाज में भी अब केवल स्त्री और पुरूष का भोगवादी संबंध ही रह गया है। जिस कालखंड में हमने सहोदर को अलग अलग रिश्तों का नाम देकर एक सनातन संस्कृति का निर्माण किया आज वो सब ध्वस्त होती दिख रही है। और स्त्री इसका विरोध करने की बजाय बेशर्मी से सहयोग कर रही है उससे यह कहा जाना प्रासंगिक है कि जब स्त्री अपनी ही मर्यादा के विनाश पर उतर जाए तो समझों कि नवकाल का उदय होने वाला हैं। इक्कीसवीं सदी में स्त्री स्वयं जिस तरह अपनी मर्यादाओं को भंग कर रही है उसे कलयुग समाप्ति का संकेत माना जा सकता है। विनाश पर ही विकास की परिकल्पना की जाती है और आज सनातन स्त्री का जो मर्यादाहीन रूप सामने आ रहा है वो कलयुग की पराकाष्ठा है और इस युग के अंत की शुरूआत है। सर्वविनाश के बाद ही सनातन की नई तस्वीर बनने के संकेत है।